तब मैं शायद आठवीं कक्षा में पढ़ता रहा होऊंगा। पिता, कस्बे के व्यस्त डाक्टर थे, पर वे सभी व्यस्तताओं के बीच, सब कुछ छोड़कर ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में गोपालप्रसाद व्यासजी के कॉलम ‘नारदजी खबर लाए हैं’ और ‘यत्र-तत्र-सर्वत्र’ ऐसे मनोयोग से पढ़ते और फिर बातों में उनके लिखे का संदर्भ बार-बार यूं होता कि मुझे उत्सुकता होती कि यार, क्या तो लिखता है यह आदमी! व्यंग्य की महीन समझ तथा गहन संस्कार मुझे उस उम्र में व्यासजी से मिले और मुझे ही क्यों, हजारों पाठकों, लेखकों और कवियों की कई पीढ़ियों को हिन्दी-व्यंग्य के इस महान पुत्र ने व्यंग्य-हास्य में संस्कारित किया। चुटीला, अनूठा, वैष्णवी व्यंग्य, गद्य और चुलबुली, निर्मल हास्य की ऐसी लोकप्रिय कविताएं कि जो पढ़ने में बांध लें और यदि नारदजी मंच से सुना रहे हों तो रससिक्त श्रोता उन्हें काव्यपाठ बंद ही न करने दें। यह तो उनका एक पक्ष है, फिर वे हिन्दी-भाषा को उसका स्थान तथा राष्ट्रभाषा का सम्मान दिलाने को कटिबद्ध ऐसे आजीवन ‘एक्टिविस्ट’ कि जो मृत्यु के ठीक पहले तक इस लक्ष्य से डिगे नहीं। दिल्ली का ‘हिन्दी भवन’, लालकिले का कवि-सम्मेलन और न जाने कितना कुछ। दो बार ऐसा सुयोग बैठा कि उन्हें ‘टेपा’ तथा ‘अट्टहास’ के शिखर सम्मान के साथ मुझे उन्हीं का युवा-सम्मान दिया गया, तब मैंने श्रोताओं से कहा था कि यह तो रेज़र के साथ ब्लेड मुफ्त मिलने जैसा मानिए। वे वर्षों इस जुमले को याद रखे रहे। गोपालप्रसाद व्यास का निधन एक जीवित किंवदंती का अवसान है। मरकर भी अमर रहने का मुहावरा यदि कहीं सच भी हो सकता है तो वह गोपालप्रसाद व्यास में हो सकता है।
(डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी, कादम्बिनी,जुलाई-2005)