हिन्दी के अमर गीतकार, कवि हरिवंशराय बच्चन के निधन पर हिन्दी भवन द्वारा 23 जनवरी, 2003 को भावभीनी स्मृति सभा का आयोजन किया गया। जिसमें हिन्दी के अनेक साहित्यकार, कविताप्रेमी एवं पत्रकार उपस्थित थे।
स्मृति सभा के प्रारंभ में हिन्दी भवन के संस्थापक मंत्री और वरिष्ठ साहित्यकार पं .गोपालप्रसाद व्यास का शोक-संदेश श्री देवराजेन्द्र ने पढ़कर सुनाया। व्यासजी ने शोक संदेश में कहा- “अपने प्रिय मित्र और प्रखरतम कवि हरिवंशराय बच्चन के निधन ने मुझे पूर्णतः विचलित कर दिया है। हमारे प्यारे और जन-जन के दुलारे, वाचिक परंपरा के अत्यंत लोकप्रिय शिखर कवि बच्चन को कालबली हर ले गया। पूरन दिस गिरि गुहा निवासी, पूर्णमासी के चंद्रमा की भांति चमकने वाला एकाएक ओझल हो गया। प्रवहमान नदी की लहरों-सी उसकी भाषा और मधुमय गीत भंवर जाल में फंसकर जाने कहां चले गए ? मेरे लिए यह खबर अत्यंत हृदय विदारक है।
समस्त भारत का साहित्य जगत इस अचानक वज्रपात से दुःख के सागर में डूब- उतर रहा है। समूचा मीडिया बच्चन और उनकी मधुशाला को दुहरा रहा है और कोई भी उनके गुण गाते नहीं थक रहा। मुझे याद आ रही है मधुशाला की यह रूबाई :
मधु कन्याओं सी मधुघट में
झूम रही है मधुबाला।
ऋषि-सा ध्यान लगा बैठा,
प्रत्येक सुरा पीने वाला।
यहां अग्नि सी धधक रही है,
जिसकी भट्ठी की ज्वाला।
किसी तपोवन से क्या कम है,
मेरी पावन मधुशाला।
क्या पियक्कड़ खैयाम की मधुशाला इतनी पावन हो सकती है ? कहना होगा कि बच्चनजी अपनी कविता में अदभुत थे, विलक्षण थे। कहां तक उनकी महिमा का गान करें ? समस्त कविताप्रेमी युगों-युगों तक उनकी कविताएं गाते रहें, गाते रहें, यही कामना है।”
बच्चनजी को याद करते हुए वरिष्ठ कथाकार और ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव ने कहा – “हरिवंशराय बच्चन सन् 1940 से 60 तक हिन्दी के अमिताभ बच्चन थे। बौद्धिकता के साथ लोकप्रियता का संगम उन्हीं में था। बच्चनजी ने अपनी पूरी आयु पाई-लगभग सौ वर्ष। मैं नहीं समझता उनके लिए किसी प्रकार के शोक की जरूरत है। शायद बच्चनजी अपना सर्वश्रेष्ठ दे चुके थे।
बच्चन और फिराक़ दोनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में होने का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि दोनों को अंग्रेजी विभाग तो जोड़ता ही है, पर तुलसीदास की रामायण भी जोड़ती है। वे दोनों श्रद्धा के साथ रामायण पढ़ते थे। बच्चनजी ने अपने ढंग से हिन्दी साहित्य की धारा को बदला। छायावाद के अमूर्तन किस्म के अध्यात्म और घपले वाली चीज के खिलाफ उन्होंने सीधी-सादी भाषा में कविता लिखी।”
उन्होंने कहा- “बच्चन ने मधुशाला के बहाने पहली बार बहुत बड़ा ‘कुफ्र’ किया था। उस समय के बच्चन ही मेरे प्रिय कवि थे। एक बहुत अच्छा सिद्ध कवि ही बहुत अच्छा गद्य लिखता है। बच्चनजी ने आत्मकथा जिस साहस के साथ लिखी और चीजों को स्वीकार किया वह सबके हृदय को छूता है। साहित्य में बच्चनजी की थोड़ी उपेक्षा हुई है। उनका पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए।”
वरिष्ठ कवि और संपादक कन्हैयालाल नंदन ने इस अवसर पर कहा कि बच्चनजी के पूरे परिवार का प्यार मुझे मिला। उनके निधन पर मैं मुंबई में ही था, मगर मुझे दुःख है कि उनकी अंतिम यात्रा में भारी जनसमूह और फ़िल्मकारों के बावजूद साहित्यकारों की कमी थी।
हिन्दी भवन के तलघर में स्थित पं. गोपालप्रसाद व्यास सभाकक्ष में , ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘क्या भूलूं क्या याद कंरू’ , ‘बसेरे से दूर’, ‘दशद्वार से सोपान तक’, ‘खैयाम की मधुशाला’, ‘साठ गीत रत्न’ आदि पुस्तकों के बीच बच्चनजी का चित्र रखा गया था, जिसे फूलों का हार पहनाया गया था। हल्की धुन में बज रहे कैसेट से मन्ना डे की आवाज में मधुशाला की पंक्तियां सुनाई पड़ रही थीं, जिसमें शुरू की चार पंक्तियां स्वयं कवि (बच्चनजी) के स्वर में थीं।
प्रारंभ में सुश्री प्रभाकिरण जैन ने बच्चनजी का परिचय दिया एवं डॉ. मंजु गुप्ता ने बच्चनजी के गीत- ‘तुम गा दो मेरा गान अमर हो जाए’ का पाठ किया। कवि मधुर शास्त्री ने बच्चनजी से जुड़े अपने अनेक संस्मरण सुनाए। हिन्दी भवन के मंत्री डॉ. गोविन्द व्यास ने बच्चनजी के व्यक्तित्व की गरिमा को रेखांकित किया। प्रदीप सरदाना ने बच्चनजी को याद करते हुए उनकी सहजता, विनम्रता और आत्मीयता को अपने जीवन की निधि बताया।
स्मृति सभा में उपस्थित विशिष्टजनों में सर्वश्री प्रदीप पंत, रामकुमार कृषक, शरनरानी बाकलीवाल, इन्दिरा मोहन, इन्दु गुप्ता, जयनारायण खण्डेलवाल, महेशचंद्र शर्मा, अजय भल्ला, दिविक रमेश, सुरेन्द्र मोहन तरुण, वीरेन्द्र प्रभाकर, अल्हड़ बीकानेरी, हरिकृष्ण देवसरे, विभा देवसरे, पुरुषोत्तम वज्र आदि उपस्थित थे।