श्रीमती माया गोविन्द – 28 मई, 2008

व्यास की तीसरी पुण्यतिथि-बुधवार, 28 मई, 2008। उनकी स्मृति को समर्पित ‘काव्ययात्रा : कवि के मुख से’ का दूसरा आयोजन। एकल काव्यपाठ के लिए आमंत्रित किया गया था वरिष्ठ कवयित्री और लोकप्रिय गीतकार माया गोविन्द को।

हिन्दी भवन का सभागार काव्यप्रेमी सुधी श्रोताओं से खचाखच भरा था। भव्य एवं चित्ताकर्षक मंच पर विराजमान थे हिन्दी भवन और कार्यक्रम के अध्यक्ष त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी, मुख्य अतिथि अशोक चक्रधर और माया गोविन्द के साथ उनके पति तथा हिन्दी फ़िल्मों के पटकथा एवं संवाद लेखक राम गोविन्द।

दीप प्रज्ज्वलन और अतिथियों के स्वागत के उपरांत हिन्दी भवन के अध्यक्ष त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी ने वाग्देवी की प्रतिमा देकर, कमला सिंघवी ने शाल ओढ़ाकर, हिन्दी भवन के कोषाध्यक्ष हरीशंकर बर्मन ने सम्मान राशि प्रदान कर तथा वरिष्ठ गीतकार बालस्वरूप राही ने पुष्पगुच्छ भेंट करके माया गोविन्द को सम्मानित किया।

‘काव्ययात्रा : कवि के मुख से’ कार्यक्रम की पृष्ठभूमि और रूपरेखा पर प्रारंभ में हिन्दी भवन के मंत्री डॉ. गोविन्द व्यास ने प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि माया गोविन्द आज हिन्दी काव्यमंच की सबसे वरिष्ठ और लोकप्रिय गीतकार हैं। मुख्य अतिथि डॉ. अशोक चक्रधर के बारे में गोविन्द व्यास का कहना था -” अशोक चक्रधर का कविता की वाचिक परंपरा में बहुत बड़ा योगदान है।” व्यासजी का स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि व्यासजी ने सन्‌ 1935 से लेकर सन्‌ 2000 तक काव्यमंचों पर काव्यपाठ किया था। उन्होंने नीरजजी से लेकर बालकवि बैरागी तक, काका हाथरसी से लेकर ओमप्रकाश आदित्य तक, एक-दो नहीं तीन-तीन पीढ़ियों को काव्यमंच ही प्रदान नहीं किया, उन्हें मंच पर प्रतिष्ठा भी दिलाई।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डॉ. अशोक चक्रधर ने हिन्दी भवन की बहुआयामी गतिविधियों पर प्रसन्नता जाहिर करते हुए हिन्दी भवन की नवनिर्मित वेबसाइट की भूरि-भूरि प्रंशंसा की। उन्होंने माया गोविन्द के बारे में कहा-“वाचिक परंपरा अब अपनी पहचान बना रही है और अब एकल काव्यपाठ के आयोजन होने लगे हैं।” उन्होंने आगे कहा कि माया गोविन्द ने अपने छंदों में नए-नए प्रयोग किए हैं और अवधी और ब्रज का समन्वय करते हुए छंदों को नई भाषा दी है। कवित्त हों या छंद उनमें आपको मायाजी पारंगत, छंदशास्त्री, कुशल रीतिबद्ध-रीतिसिद्ध-रीतिमुक्त सभी का समन्वय करती दिखाई देती हैं। इन शब्दों के साथ डॉ. अशोक चक्रधर ने माया गोविन्द को एकल काव्यपाठ के लिए प्रस्तुत किया।

माया गोविन्द ने सुधी श्रोताओं के सम्मुख अपने गीतों, ग़ज़लों, छंदों और छंदमुक्त कविता का जीवंत और प्रभावशाली काव्यपाठ करके ऐसा समां बांधा कि अनेक बार सभागार तालियों की गड़गड़ाहट और वाह-वाह से गूंज उठा। उन्होंने एकल काव्यपाठ करने से पहले पं. गोपालप्रसाद व्यास को अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए यह छंद पढ़कर उन्हें याद किया —

धन्य धन्य यश से आच्छादित
हिन्दी का पुरुषोत्तम न्यास।
हिन्दी और साहित्य सृजन का
वन्दित मुखरित सतत्‌ विकास॥

काव्य शिरोमणि की गरिमामय
छवि का उज्ज्वल पुण्य प्रकाश।
श्री गोपालप्रसाद व्यास का
काव्य भरे मन में उल्लास॥

नहीं भुला सकता कोई भी,
कविवर का हंसमुख व्यक्तित्व।
ब्रजभाषा पद- छंद- व्यंग्य में
जीवित है उनका अस्तित्व॥
हास्य-व्यंग्य जीवन उमंग से
भरा हुआ उनका साहित्य।
कठिन समय में भी मुसकाओ
देकर गए हमें दायित्व॥

इस मन्दिर में इक निर्गुनिया
दीप जलाने आई है।
माया गोविन्द अपने कविता-
सुमन चढ़ाने आई है।

माया गोविन्द ने बताया जब वह 16 वर्ष की थी तब व्यासजी ने पहली बार उन्हें लाल किले में काव्यपाठ के लिए बुलाया था। प्रस्तुत है माया गोविन्द द्वारा पढ़ी गईं काव्य रचनाओं के चुनिंदा अंश – जीवन के सौदागर बोल
मिट्टी का क्या होगा मोल ?

समय-पतंग उड़ाते हैं
कुछ खोते कुछ पाते हैं।
चेहरे पे मकड़ी-जाला
नैनों में मोती छाला।
कफन समेटे तन का झोल !
मिट्टी का क्या होगा मोल ?
सौदागर ये मिट्टी ले
मिट्टी का कण-कण गिन दे।
बात मेरी सब सच्ची है
ये कच्ची की कच्ची है
सस्ते में बेचूं अनमोल !
मिट्टी का क्या होगा मोल ?
जीवन के सौदागर बोल।

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आपकी अंजुमन में लो हम आ गए
दुश्मनों के इरादे बदल जाएंगे।
खत्म हो जाएंगी सारी तारीकियां
बुझ गए जो दीये फिर से जल जाएंगे॥
महफिलें यूं तो सजती रहेंगी सदा
हम भी मौजूद होंगे किसे है पता।
जिंदगी का कोई भी भरोसा नहीं,
बज्म रह जाएगी हम निकल जाएंगे।

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चलो चलें छत पर अतीत गुनगुनाएं
नैनों से नैनों के काफ़िये मिलाएं।
मैं बनूं कलश बनो पराग जल
मैं खिलूं सजल कमल कमल
तन की रुबाई को तुम करो सहल
अधरों से लिखो नई ग़ज़ल
तुम ग़ज़ल लिखो और हम, हाशिये बचाएं।
नैनों से नैनों के काफ़िये मिलाएं।
नैनों से नैनों के काफ़िये मिलायें॥ (अतीत गुनगुनायें)

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ऐसी लागी मेरे मन में अगन
मैंने सारी उम्र कर दी हवन।
रेत जैसी होगई है जिंदगी
मैंने आसुंओं के किए आचमन।
इक पत्थर का बोलो
एहसास से क्या रिश्ता ?
बिन पंख परिंदों का
आकाश से क्या रिश्ता ?
परछाई से भी हुई अनबन।
मैनें सारी उम्र कर दी हवन॥
रिश्तों की साजिश ने
जी भर के हंसाया है।
मुझको संत्रासों ने
अनमोल बनाया है।
चिंगारियां भी लगे चंदन।
मैंने सारी उम्र कर दी हवन॥
अज्ञात संस्कृति की
तस्करी हो रही है।
जो अपनी विरासत थी
अधमरी हो रही है।
सभ्यता ने ओढ़ लिया है कफन।
मैंने सारी उम्र कर दी हवन॥
इक दिन मेरी सांसों की
सरगम खो जाएगी।
तनहाई मुझे खोकर
तनहा हो जाएगी।
जब चेतना हो जाएगी हिरन।
मैंने सारी उम्र कर दी हवन॥
(उम्र कर दी हवन )

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युग-युग तक दुख सहा
नहीं कुछ कहा मगर अब
सहूंगी नहीं , मैं चुप रहूंगी नहीं
सूरज बुझा दूंगी मैं।
घुंघटा जला दूंगी मैं॥
हो गरीब या हो अमीर
इज्जत तो इज्जत होती है
धर्म कोई भी हो ये इबादत
सिर्फ इबादत होती है।
दुल्हन हूं बाज़ार नहीं हूं
आंसू का व्यापार नहीं
सोने के सिक्कों के बदले
जलने को तैयार नहीं।
अब कोई अबला कहे न मुझको
ज़ोर-जुल्म के हर परचम को
झुका दूंगी मैं सूरज बुझा दूंगी मैं
घुंघटा जला दूंगी मैं।

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( सूरज बुझा दूंगी मैं)
सूनी आंखों में जली देखीं बत्तियां हमने
जैसे घाटी में छुपी देखीं बस्तियां हमने।
अब भटकते हैं हम सहरा में प्यास लब पे लिए
हाय क्यों बेच दी सावन की बदलियां हमने।
याद के कितने खिलौनों को चूर-चूर किया
रात भर बैठ के फाड़ी हैं चिटिठयां हमने।
अब नवाबी का चलन खत्म हुआ, तख्त गए
फिर भी सहमी झुकी देखी हैं बांदियां हमने। (ग़ज़ल)

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मैंने जब आंखिन में, डारा आज कजरा तो
कारी-कारी घटा, घबराय के चली गई।
जैसे घुंघरारी, मैंने अलकें संवारी,
एक नागिन ने देखा बलखाय के चली गई।
जैसे अंगड़ाई ली, पड़ोस की कुंवारी छोरी,
दांतन मां आंगुरी दबाय के चली गई।
रूप की चमक चिन्गारी बन अस फूटि,
सौतन अंगीठी सुलगाय के चली गई।

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मांग भरि बिंदिया लगाई जब राधिका ने,
लागे जैसे भोरवाला सूरज है, झोरी में।
कजरा लगावे तो या लागे कि समुन्दर मां,
मछरी फंसाय लई, मछुओं ने डोरी में।
गोरे-गोरे मुखड़े पे, घुंघटा सुनहरा यूं,
जैसे चांद राखे कोऊ सोने की कटोरी में।
नाक मां नथनियां वा धीरे-धीरे डारे ऐसे,
जैसे कोऊ मालदार, ताला दे तिजोरी में॥

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मुंदरी उरझि गई राधिका की लट बीच,
ढूंढत फिरत स्याम, अपनी मुंदरिया।
ललिता ने पाय लई, मुंदरी सहेज लई,
स्याम जू को जाय दई, हीरे की मुंदरिया।
बोली इठलाय कछू भेंट तो निकारो, स्याम
बोले स्याम, चूमि लेव, मोरी या अंगुरिया।
चूमत हंसत जात, ‘ललिता’ कहत जात,
राम करे खोय जाय, तोरी या बंसुरिया॥ – – – – (छंद)

अंत में कार्यक्रम के अध्यक्ष त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी ने कहा कि इतनी देर तक आप सबका बैठे रहना इसी कारण संभव हुआ कि जो आल्हाद, जो आनंद हमें अपेक्षित था उससे अधिक मायाजी ने अपने काव्यपाठ में दिया। मैं इस एकल काव्यपाठ के लिए मायाजी को आपकी और हिन्दी भवन की ओर से बहुत-बहुत बधाई देता हूं।

पं. गोपालप्रसाद व्यासजी से मायाजी को जो प्रेरणा प्राप्त हुई, उसी प्रकार उन्हें प्राप्त होती रहे। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ आप सभी को धन्यवाद। माया गोविन्द के एकल काव्यपाठ का आनंद लेने के लिए अनेक विशिष्ट श्रोता उपस्थित थे। उनमें प्रमुख थे- सर्वश्री बालस्वरूप राही, कुंवर बेचैन, प्रवीण शुक्ल, वीरेन्द्र प्रभाकर, वीरेशप्रताप चौधरी, बी.एल. गौड़, पुष्पा राही, रमा सिंह, इन्दु गुप्ता, महेशचंद्र शर्मा, इन्दिरा मोहन, संतोष माटा, निशा भार्गव, दीक्षित दनकौरी, श्याम निर्मम, सर्वेश चंदौसवी, पुरुषोत्तम वज्र, सरोजिनी प्रीतम, राजेश चेतन, प्रेम जनमेजय, गजेन्द्र सोलंकी, महेन्द्र शर्मा, रेखा व्यास, डॉ. प्रेम सिंह, राधेश्याम बंधु, रामप्रकाश द्विवेदी आदि।