एक हिन्दीसेवी का जाना

व्यासजी नहीं रहे। उनका चले जाना न असामयिक है, न आकस्मिक। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि उन्होंने तिरानवे वर्ष की आयु पाई, बल्कि यह है कि ताउम्र वे जिस अडिग निष्ठा और कर्मठता से हिन्दी भाषा की सेवा में लगे रहे, वह विरल है। दिल्ली में वे प्रवासी थे। रोज़ी-रोटी की तलाश में आने वाले तमाम बेकार ब्रजवासियों में से एक। बहुपठित और बहुश्रुत, पर उस ज्ञान-संपदा को बिना किसी डिग्री या सनद के वे अपनी स्मृति में, अपनी चेतना में धारण करते थे। कुछ ही सप्ताह पहले तक वे शरीर से पूरी तरह अक्षम होने पर भी ‘हिन्दुस्तान’ के लिए अपने लोकप्रिय कॉलम ‘नारदजी खबर लाए हैं’ की वाचिक भरपाई करते रहे। उनकी चेतना ने अंत तक उनका साथ नहीं छोड़ा। 1981 में जब मैंने प्रोफेसर के रूप में नियुक्ति के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की अध्यक्षता का दायित्व संभाला तो मेरे लाख मना करने पर व्यासजी ने सम्मेलन की ओर से मेरे सम्मान में सप्रू हाउस में एक सार्वजनिक आयोजन किया। मेरी आपत्ति अपनी जगह थी। विभाग में तब तक कई और अध्यक्ष रह चुके थे। सभी मेरे गुरु स्थानीय थे। उन्होंने किसी के लिए वैसा आयोजन नहीं किया था। पर व्यासजी ने इस तर्क से ज्य़ादा भावना का विषय बनाते हुए घोषणा कर दी कि आयोजन तो होगा, मैं यदि न आना चाहूं तो मेरी इच्छा। वे जानते थे कि उनके हठाग्रह के सामने मैं हथियार डाल दूंगी। उन्होंने कमलापति त्रिपाठी, कुमुद बेन सहित नगर के तमाम गणमान्य व्यक्तियों और विश्वविद्यालय परिवार को साग्रह निमंत्रित किया। कक्ष खचाखच भरा था। मेरा मन कृतज्ञता से भर गया। क्योंकि अपने प्रति उनके इस निस्स्वार्थ स्नेह-सम्मान के पीछे कोई व्यावहारिक उद्देश्य मुझे नहीं दिखाई पड़ रहा था। दिल्ली जिन दो प्रसंगों के लिए व्यासजी की ऋणी रहेगी, उनमें से एक है ‘हिन्दी अकादमी’ की स्थापना और दूसरा ‘हिन्दी भवन’ का निर्माण।

(डॉ. निर्मला जैन, जनसत्ता-5 जून, 2005)