आराम करो !

एक मित्र मिले, बोले – ”लाला
तुम किस चक्की का खाते हो ?
इस छह छटॉँक के राशन में भी
तोंद बढ़ाए जाते हो !

क्या रक्खा मांस बढ़ाने में
मनहूस अक्ल से काम करो !
संक्रान्ति काल की बेला है
मर मिटो जगत में नाम करो !”

हम बोले, रहने दो लिक्चर
पुरखों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा
आराम करो, आराम करो !

आराम, जिंदगी की कुंजी
इससे न तपेदिक होती है।
आराम-सुधा की एक बूँद
तन का दुबलापन खोती है।

आराम शब्द में राम छिपा
जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो
विरला ही योगी होता है।

इसलिए तुम्हें समझाता हूँ
मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन-यौवन क्षणभंगुर
आराम करो, आराम करो !

यदि करना ही कुछ पड़ जाए
तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे
बस, लंबी-लंबी बात करो !

करने-धरने में क्या रक्खा
जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है
वह कभी न हाथ चलाने में।
तुम मुझसे पूछो -बतलाऊँ,
है मजा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा ?
जो रक्खा है सो जाने में !
तुम चतुर बनो चाहे जितने
वे बुद्धू ही बतलाएंगी।
दो पैसे की तरकारी पर
लाखों ही बात सुनाएंगी।

कह देंगी-”तुमसे तो अच्छा
लड़का सौदा ले आता है।
तुम छह बच्चों के बाप हुए
कुछ आता है, ना जाता है !”
मैं यही सोचकर पास अकल के
कम ही जाया करता हूँ ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं
उनसे कतराया करता हूँ ।

दीए जलने के पहले ही
घर में आ जाया करता हूँ ।
जो मिलता है खा लेता हूँ ,
चुपके सो जाया करता हूँ ।

मेरी गीता में लिखा हुआ-
जो सच्चे योगी होते हैं ,
वे कम-से-कम बारह घंटे
तो बेफिक्री से सोते हैं।
अदवायन-खिंची खाट में जो
पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से
भी ऊंचा उठ जाता है।
जब निद्रा-भक्त लगा लुंगी
लंबी टॉँगें फैलाता है
तो सच कहता हूँ स्वर्ग
हाथ से दो अंगुल रह जाता है।
जब नरम गुदगुदे गद्दे पर
चादर सफेद बिछ जाती है।
तो ऐसा लगता है यू0 पी0 में
पंत मिनिस्ट्री आती है।
जब ‘सुख की नींद’ कढ़ा तकिया
इस सिर के नीचे आता है।
तो सच कहता हूँ इस सिर में
इंजन जैसे लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ
बुद्धी भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है
कविता, बस, उमड़ी पड़ती है।

जब हिन्दी का कवि पड़ा-पड़ा
खटिया पर करवट लेता है।
तो, बिना कलम-कागज़ धरती-आकाश
एक कर देता है।
उस वक्त, पलंग की मक्खी भी
चंद्रमुखी बन जाती है !
झींगुर की भी आवाज़
पायलों का धोखा दे जाती है।
मैं औरों की तो नहीं, बात
पहले अपनी ही लेता हूँ ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को
ऊंटों की उपमा देता हूँ ।
मैं खटरागी हूँ, मुझको तो
खटिया में गीत फूटते हैं
छत की कड़ियां गिनते-गिनते
छंदों के बंद टूटते हैं !

मच्छर का इंजेक्शन लगते ही
जो चेतनता आती है।
वह ऐसी पाकिस्तानी है
शब्दों में कही न जाती है।

मैं इसीलिए तो कहता हूँ
मेरे कहने से काम करो !
यह खाट बिछा लो आँगन में
लेटो, बैठो, आराम करो !

‘हास्य सागर’ से सन् 1996